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मरहूम शेख अंसारी इमाम ज़मान के घर में

मरहूम शेख अंसारी इमाम ज़मान के घर में

अब हम आपके सामने शिया समुदाय की उम महान हस्ती का दिलों पुर नूर करने वाला वाक़ेआ पेश करते हैं जिन्होंने प्रतयक्ष और अप्रतयक्ष दोनो स्थानों पर ग़ैबी सहायताओं सें ख़ुदा के दीन की हिफ़ाज़त की है।

मरहूम शेख़ अंसारी के एक छात्र ने आपके इमाम ज़माना (अ) से संबंधों और आपके इमाम के घर पर जाने के बारे में यूँ बयान किया हैः

एक बार मैं इमाम हुसैन (अ) की ज़ियारत के लिए करबला पहुंचा, एक रात को मैं आधी रात के बाच हम्माम जाने के लिए घर से बाहर निकला, और चूंकि गलियों में कीचड़ आदि था इसलिए मैंने एक चिराग़ भी ले लिया, मैने दूर से एक साया देखा जो बिलकुल शेख़ की तरह का था, मैं जब थोड़ा पास पहुंचा तो पता चला कि वह शेख़ ही हैं। मैने सोचा कि शेख इतनी रात में कीचड़ भरी गली में कमज़ोर निगाहों के साथ क्या कर रहे हैं? किधर जा रहे हैं? मैने सोचा कि कहीं कोई आपका पीछा करके आप पर हमला ना कर दे इसलिए आहिस्ता आहिस्ता आप के पीछे हो लिया। कुछ दूर चलने के बाद आप एक पुराने बने हुए मकान के पास खड़े होकर ख़ुलूस के साथ ज़ियारते जामए कबीरा पढ़ने लगे। और पढ़ने के बाद उस घर में दाख़िल हो गए। उसके बाद मुझे कुछ दिखाई नही दिया लेकिन मैं आपकी आवाज़ को सुन रहा था ऍसा लग रहा था कि जैसे आप किसी से बात कर रहे हों। मैं वापस आ गया और हम्माम जाने के बाद इमाम हुसैन (अ) की ज़ियारत करने गया और शेख़ को मैने इमाम के हरम में देखा।

इस यात्रा से वापस लौटने के बाद मैं नजफ़ अशरफ़ में शेख़ के पास पहुंचा और उस रात वाले वाक़ए को दोहराया, और इसका विवरण जानना चाहा, पहले तो शेख़ ने इन्कार किया लेकिन बहुत इसरार पर आप ने फ़रमायाः जब मैं इमाम से मुलाक़ात करना चाहता हूँ तो उस घर के दरवाज़े पर चला जाता हूँ, जिसे अब तुम कभी नही देख पाओगे, ज़ियारते जामेआ पढ़ने के बाद प्रवेश करने की आज्ञा मांगता हूँ, अगर आज्ञा मिल जाती है तो हज़रत की ख़िदमत में ज़ियारत के लिए पहुंच जाता हूँ। और जो मसअले मुझे समझ में नही आते हैं आप उनका हल मुझे बता देते हैं। और याद रखो जब तक मैं जीवित हूँ इस बात को छिपाकर रखना, कभी भी किसी को नही बताना[1]

इसी प्रकार और भी महान हस्तियां सदैव हज़रत के ज़ोहूर के लिए तैयार रखती थीं, उन लोगों की तरह नही जो कि ज़ोहूर के ज़माने में आयतों की तावील और उसकी तौजीह करेंगे, और इमाम ज़माना (अ) से जंग करेंगे!

कलीदे गंजे सआदत फ़ितद बेह दस्ते कसी

कि नख़ले हस्ती ऊ रा बुवद बरे हुनरी

चू मुस्तइद नज़र नीस्ती, विसाल म जवी

कि जामे जम न दहद सूद, वक़्ते बे बसरी।

 


[1] ज़िनदगानी एवं शख़्सियते शेख़ अंसारी, पेज 106

 

 

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