حضرت امام صادق علیہ السلام نے فرمایا : اگر میں ان(امام زمانہ علیہ السلام) کے زمانے کو درک کر لیتا تو اپنی حیات کے تمام ایّام ان کی خدمت میں بسر کرتا۔
ज़हूर के ज़माने में न्याय

ज़हूर के ज़माने में न्याय

इमाम--ज़माना अज्जलल्लाहु फरजहुश्शरीफ के राज्य में ऐसे महान और महत्तवपूर्ण परीवर्तन आएंगें कि हिंसकों के संसार का नाश हो जाएगा और बिदअत गुज़ारों की इच्छा मट्टी में मिल जाएगी। यहाँ तक कि इन की हिंसा और बिदअत के लक्षण भी बाक़ी नही रहेंगें। इस महत्तवपूर्ण बात को समझने के लिए सोच-विचार और समझदारी की अवश्यकता है, कि अब तक हिंसकों ने और बिदअत गुज़ारों ने संसार में कैसे घिनौने और हनिकारक काम किए हैं, और उन्होंने किस तरह लोगों को आर्थिक स्थिती, सोच-विचार को और आध्यात्मिकता को हनि पहुँचायी हैं ?

कौन से एसे महत्तवपूर्ण बदलाव इस संसार में होने चाहिए कि जिस से यह अत्याचार (जिनायत) ख़त्म हो जाएं और उस की जगह न्याय का राज्य हो ?

उस मुक्ति और आज़ादी (या जिस दिन इमाम--ज़माना अज्जलल्लाहु फरजहुश्शरीफ को ज़हूर होगा) वाले दिन दुनिया इतनी सुंदर होगी कि उस वक़्त ना केवल यह की ज़ुल्म करने वालों के जीवन का अंत होगा बल्कि उनके ज़ुल्म के लक्षण तक मिट जाऐंगे।

उस जीवन दाता और अदर्श समाज को बयान करने के लिए हमें शक्तिशाली सोच की अवश्यकता हैं ताकि ज़हूर के समय की प्रकाश को और उस की चमक को मस्तिष्क में  लासकें।

हम ने जो महत्तवपूर्ण निष्कर्ष यहाँ निकाला है वह यह है कि इमाम--ज़माना अज्जलल्लाहु फरजहुश्शरीफ के न्यायिक राज्य में हनन (ज़ुल्म व सितम) के लक्षण तक नहीं मिलेंगे और बिदअतों के लक्षण ख़त्म हो जाएंगें यह एक ऐसा सत्य है कि जो हम ने अहलेबैत से सीखा है।

हज़रत इमाम मोहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैः 

ھذہ الآیۃ‘‘الذین ان مکناھم.......’’ نزلت فی المھدی و اصحابہ یملکھم اللہ مشارق الارض ومغاربھا،ویظھر اللہ بھم الدین حتی لا یری اثر من الظلم والبدع

 

यह आयते शरीफ़ा (यही वह लोग हैं जिन्हें हम ने धरती पर अधिकार दिया) इमाम--ज़माना अज्जलल्लाहु फरजहुश्शरीफ और उनके असहाब के बारे में नाज़िल हुई है। ईश्वर उन्हें पूरब और पश्चिम का मालिक बनाएगा,उस के माध्यम से दीन (धर्म) को प्रकट करेगा। यहाँ तक कि ज़ुल्म (हनन) और बिदअत के लक्षण तक दिखाई नहीं देंगे।(3-4)

क्या उस जीवन दाता समय को ना देखें ?

क्या उस समय की कल्पना ना करें ?

क्या उस समय को पा सकते हैं ?

 


(3) सूरए हज, आयत न0. 41

(4) अहक़ाक़ुल हक़ः 13/341

 

 

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