حضرت امام صادق علیہ السلام نے فرمایا : اگر میں ان(امام زمانہ علیہ السلام) کے زمانے کو درک کر لیتا تو اپنی حیات کے تمام ایّام ان کی خدمت میں بسر کرتا۔
इस ज़माने के अविष्कार में कमी

इस ज़माने के अविष्कार में कमी

दुनिया ने अब तक जितनी भी तरक़्क़ी की है उससे यह पता चलता है कि आज के अविष्कार ने इंसान की आत्मा को उसके जिस्म का मोहताज बाना दिया है जबकि होना यह चाहिए था कि इंसान के अंदर इतनी उन्नति और प्रगति होती कि उसका जिस्म आत्मा का मोहताज हो जाता। ( जबकी सच्चाई यही है कि जिस्म आत्मा का मोहताज होता है । ) यह इस दौर के आविष्कार की बहुत बड़ी कमी है। और अफ़सोस से कहना पड़ता है कि ग़ैबत के ज़माने के दानिश्वरों (प्रोफ़ेसर) नें इस बारे में कोई भी सही बात हसिल नहीं की है कि जो वह लोगों को बता सकें।

अलबत्ता याद रहे कि हमरा यह कहना कि ग़ैबत के ज़माने की टेक्नोलॉजी में कमी पायी जाती है, इस दलील की बुनियाद पर है, कि हम इस बिजली से भी तेज़ रफ्तार ज़माने  को ताँगे और बग्घी से नहीं मिला रहें है बलकि हमारा कहना यह है कि ख़ुदा ने इंसानों के अंदर कुछ शक्तियाँ पैदा की हैं कि जिस के कारण वह ख़ुद वन्दे आलम को          تبارک اللہ احسن الخالقین   कहता है।(15)

हमारा कहना यह है कि इंसान में आत्मा में भी पायी जाती है अतः हमेशा आत्मा को जिस्म का मोहताज ना समझें। इंसान को यह सोचना चाहिए कि इंसान अपने वजूद के दूसरे पहलूओं से लाभ उठाकर जिस्म को आत्मा का मोहताज बनाए । लेकिन अगर उसने आत्मा को जिस्म का मोहताज बना दिया तो कभी इंसान तरक़्क़ी नहीं कर सकता, बल्कि तरक़्क़ी उस सूरत में सम्भव है कि इंसान जिस्म को आत्मा का मोहताज बनाए।

इसीलिए हम कहते हैं कि ग़ैबत के ज़माने की टेक्नोलॉजी में कमी है।

और अब यह बात कहने में कोई संकोच नहीं है कि ज़हूर के बा बरकत ज़माने में हर चीज़ की तरक़्क़ी अपनी चरम सीमा पर होगी। क्योंकि उस ज़माने में सब आत्मा और अक़ल के ताबे (आज्ञाकारी) होंगे, जिस्म के नहीं।

हम अपने दावे को ख़ानदाने इस्मत व तहारत और अहलेबैत अलैहेमुस्सलाम के जीवन दाता फ़रमान से साबित करेंगे। अतः हम इसी रेवायत को बयान करके ज़हूर के तरक़्क़ी याफ़्ता दौर को बयान करने की कोशिश करेंगे।

इब्ने मुस्कान कहते हैं कि मैनें हज़रत इमाम-ए-जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम से सुना है कि आपने फ़रमायाः

ان المؤمن فی زمان القائم و ھو بالمشرق لیری أخاہ الذی فی المغرب، و کذا الذی فی المغرب یری أخاہ الذی فی المشرق

यक़ीनन क़ायम ( यानी इमाम--ज़माना अज्जलल्लाहु फरजहुश्शरीफ )  के ज़माने में पूरब में बैठा एक मोमिन, पश्चिम में बैठे अपने भाई को देख सकेगा। और इसी तरह जो पश्चिम में बैठा होगा वह पूरब में बैठे अपने भाई को देख सकेगा।(16)

 


(15) सूरए मोमनूनः 14

(16) बेहारुल अनवारः 52/391

 

 

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